'हाशिए की महिलाएँ, मजदूर, आदिवासी एवं दलित स्त्रियाँ' विषय पर बात करना आज बहुत जरूरी है क्योंकि मजदूर, आदिवासी एवं दलित स्त्रियाँ एक ऐसा तबका हैं जो स्त्रियों में भी सबसे ज्यादा विषम परिस्थितियों, भेदभाव और शोषण का शिकार होती हैं। इन तीनों प्रकारों की महिलाओं पर एक साथ बात करने पर ही हम भारत में वर्ग, जाति और जेंडर के आपसी सुगठित संबंधों को जान पाएँगे। हम सभी भारत में जब भी असमानता पर बात करते हैं, तो सिर्फ वर्गगत असमानता को ही केंद्र में रखना चाहते हैं। पर भारत में असमानता का आधार अत्यंत जटिल है जो वर्ग के साथ-साथ जाति और जेंडर को भी अपने भीतर समाहित किए है। क्या यह वास्तविकता नहीं कि अधिकांश मजदूर महिलाएँ आदिवासी हैं या दलित हैं। दुनिया का अधिकांश श्रम ये महिलाएँ ही करती हैं और बदले में सबसे कम पाती हैं। चाहे वह संपत्ति हो, आय हो स्वास्थ्य हो, भोजन हो या सम्मान हो।
हम देखते हैं कि किस तरह समान काम करने के बावजूद भी उनकी मजदूरी उनके साथी मजदूरों से कम होती है। कई जगहों पर तो जहाँ काम पूरे परिवार के आधार पर मिलता है, वहाँ मजदूरी परिवार के मुखिया (पुरुष) को ही दी जाती है और श्रम करने के बावजूद परिवार की महिलाओं के हाथ में कोई आय नहीं आ पाती। काम करने की जगह तो ओर भी बदतर है, जहाँ बाकी सुविधाएँ तो दूर पीने का साफ पानी व शौचालय तक की सुविधा नहीं होती। अक्सर गर्भवती मजदूर महिलाएँ शहर से दूर भी काम करती है और प्रसव के समय उन्हें सामान्य चिकित्सीय सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हो पाती। चाहें निर्माण कार्य हो, फैक्ट्री हो, खेत हो, या असंगठित क्षेत्र के छोटे-छोटे दड़बे, हर जगह हमें ये महिला मजदूर पूरी ताकत से अपने श्रम को झोंकती दिखती है पर इसके बदले इन्हें क्या मिलता है। अगर खेत में काम करने वाली महिलाओं की बात करें तो पता चलता है कि ये महिलाएँ दुनिया की खाद्य-सामग्री के 50 प्रतिशत का उत्पादन करती हैं जबकि बदले में उन्हें मात्र 10 प्रतिशत आय प्राप्त होती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का संसाधनों पर अधिकार भी न के बराबर होता है। ये महिलाएँ एक ओर पितृसत्तात्मक दमन को सहती हैं, चाहें वह दमन घरेलू हिंसा के माध्यम से हो यह आय पर सिर्फ पति के अधिकार से वहीं दूसरी ओर वे वर्ग और जातिगत उत्पीड़न का शिकार भी बनती हैं। यौनिक और शारीरिक हिंसा से खुद को बचाना इनके कामकाजी जीवन का एक बड़ा तनाव होता है।
जो महिलाएँ असंगठित क्षेत्रों में श्रम करती हैं, उनकी स्थिति और भी निराशाजनक है, क्योंकि वे अपना रोजगार घर में रहकर ही करती हैं, जिससे उन्हें श्रमिक होने की पहचान भी नहीं मिल पाती और श्रम क्षेत्र में उनकी भूमिका नगण्य मान ली जाती है। उनके द्वारा किया जाने वाला काम घर के कामों के ही वृहत्तर दायरे में आ जाता है। श्रमिक की मान्यता नहीं होने के कारण वे किसी श्रमिक संघ का हिस्सा भी नहीं बन पातीं। इसके लिए मैं फिरोजाबाद के चूड़ी उद्योग का उदाहरण देना चाहूँगी। यह माना जाता है कि चूड़ी बनाना एक खतरनाक काम है, अतः स्त्रियों के श्रम की इस उद्योग में कोई भी भूमिका नहीं है। जबकि वास्तविकता में असंगठित श्रमिक के रूप में इन महिलाओं द्वारा 60 प्रतिशत श्रम की भागीदारी का एक बड़ा योगदान इस उद्योग में है। ये महिलाएँ कच्चे माल को तैयार माल में बदलती हैं। जो कि अपने आप में काफी कठिन और मेहनतकश है। लेकिन अभी भी असंगठित क्षेत्र को पहचान न मिलने के कारण वो महिलाएँ श्रमिकों की श्रेणी में नहीं आ पाई हैं। वहाँ के मजदूर संगठन भी महिलाओं को शामिल नहीं करते। क्योंकि उनकी दृष्टि में ये महिलाएँ पति के रोजगार में सहायता करने वाली है पर श्रमिक नहीं है।
दलित या आदिवासी महिलाओं के श्रम के शोषण के साथ-साथ एक और बात जुड़ी है वह उनका यौन शोषण। आर्थिक या जातिगत स्तर का हाशिया इनके श्रम के साथ-साथ इन महिलाओं के शरीर को भी एक उपभोग की वस्तु में बदल देता है। भारत के कई इलाकों में डाला प्रथा इसका प्रमाण है। दलित महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए हाल ही की कुछ खबरों की चर्चा करती हूँ जिसमें प्राथमिक विद्यालयों में कुछ खाना पकाने वाली महिला के साथ मारपीट की गई और उसके पकाए खाने को फेंक दिया गया क्योंकि वह दलित थी और स्कूल में पढ़ने वाले सवर्ण बच्चे उसके हाथ का छुआ खाना नहीं खा सकते।
स्त्री आंदोलन ने सदैव हाशिए की महिलाओं की समस्याओं को केंद्र में रखा है। उनकी समस्याओं के माध्यम से स्त्री जीवन से जुड़ी तमाम जटिलताओं और इन महिलाओं द्वारा अपने शोषण के विरोध में किए गए संघर्षों को समझने का प्रयास किया गया है। भारत में जितने भी महत्वपूर्ण आंदोलन हुए हैं, चाहे वे बड़े बाँध विरोधी आंदोलन हों, विस्थापन विरोधी आंदोलन हों, प्राकृतिक संपदा को बचाने के लिए होने वाले आंदोलन हों या फिर श्रमिकों की बेहतर कार्यस्थिति के लिए चले आंदोलन हों, जाति विरोधी आंदोलन, उनमें महिला श्रमिकों, आदिवासी महिलाओं तथा दलित महिलाओं की बड़ी भूमिका रही है। खासतौर पर संगठित क्षेत्र की महिलाएँ जो ट्रेड यूनियनों की सदस्य रही, उन्होंने काफी दिलेरी के साथ पूँजीपति वर्ग के जहर को अपने इलाके में फैलने से रोका (कितनी सफल हो पाईं, ये अलग मसला है)। इस कारण इन महिलाओं को अनेक स्तरों पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। पारिवारिक और कार्यस्थल की जिम्मेदारियों को विपरीत परिस्थितियों में निभाते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाने के महिलाओं के योगदान को अभी पूरी तरह से नहीं आँका गया। यह अभी भी स्त्री आंदोलन के सामने बड़ा प्रश्न है। इसके लिए कैसे अलग-अलग परिस्थितियों में दमन की शिकार महिलाओं को एक बैनर के नीचे लाया जाए, यह बड़ी चुनौती है।
सबसे पहले नारीवादियों ने ही भारत में वर्गगत, जातिगत और जेंडरगत असमानताओं के आपस में जुड़े संबंध को व्याख्यायित किया। और बताया कि अलग-अलग होने पर भी इनका व्यापक फलक एक ही है। इसी समझ ने कई आंदोलनकारी महिलाओं को एक जुट होने की प्रेरणा भी दी। इन महिलाओं के अपने शोषण के विरोध में किए गए संघर्षों ने जहाँ महिला आंदोलन को मजबूती दी, वही महिला आंदोलन भी स्त्री की जटिलता को और बेहतर समझ अपनी रणनीति को ज्यादा सशक्त बनाने की ओर अग्रसर हुआ।